माँ कैसे भुलूंगा ओ बचपन, जब हम थे संग-संग
तू कभी रुलाती, तो कभी हँसाती थी।
बिना भूख के भी तू अपने कोमल
हाथों से भोजन कराती थी।
ना जाने यही कोमल हाथ कब कैसे, पत्थर बन जाते थे,
जो धरती का सीना चीर सोना उगाते थे।
माँ तू थी भोली या नादान आज भी न समझ पाया मै,
तेरे हँसी के बीच दुख दर्द न अलग कर पाया मै।
खो जाता हूँ कभी कबार बचपन की यादोँ मे,
सुना था कि बचपन प्यारा और खुशहाल होता है।
पर माँ शायद बचपन मैंने देखा ही नहीं,
या कहते हैं झूठ लोग; क्या वही बचपन था,
जब तुझे जानवरों की तरहं पीडित किया जाता था,
या तेरी कमज़ोरी में अन्न के लिए सताया जाता था?
सोचा कई बार कि पूछूंगा तुझसे,
कि क्या मज़बूरी थी माँ तेरी, क्यों जिए दुख भरे दिन,
या जिलाया तुने मुझे हर एक दिन।
पर कभी पूछ सका न मैं।
सोच कर यह न जाने क्यों माँ डर लगता है मुझे,
क्या कर पाउँगा पूरी उम्मीद तेरी,
क्या लौटा सकूंगा हँसी तेरी ?
माँ लाख कोशिश कर न छिपा पाएगी,
तेरी हँसि ही मुझे रुला जाएगी।
सोचता हूँ छोड़ जाऊ ये जहाँ, पर मजबूर हूँ,
माँ क्या तू अकेली जी पायेगी?
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